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सरयू दीदी

मनोरमा जफ़ा

प्रकाशक : ख़ास किताब फ़ाउन्डेशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7506
आईएसबीएन :978-81-88236-47

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एक सामाजिक उपन्यास...

Saryu Didi - A Hindi Book - by Manoram Zafa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैंने फ़ोन मिलाया। गोपाल जोशी सुनकर सदके में आ गए, ‘यह नहीं हो सकता। मैं अभी पता लगाता हूं।’ उन्होंने फ़ोन रख दिया।
‘क्या करूं मनु ?’ दीदी की आवाज़ में बेबसी थी। वही तो सदा समझदार रहीं। वही तो हर प्रश्न का उत्तर और हर समस्या का हल ढूँढ़ लेती थीं। पर यहां वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी थीं। वह उठकर कमरे में टहलने लगीं। ‘अभी तो जीवन शुरू ही हुआ था मनु।’ दीदी ने हाथ जोड़े ऊपर देखा, आंखें बंद कीं और ज़ोर से बोलीं, ‘हे ईश्वर आप ही माता हैं, आप ही पिता हैं। हे ईश्वर आप ही सबकी रक्षा करने वाले हैं। हे ईश्वर मुझे ठीक सोचने-समझने की शक्ति दीजिए। मुझे बल दीजिए। हे ईश्वर मुझे दीजिए।’ दो क्षण बाद दीदी की आंखें झरने लगीं। थोड़ी देर बाद दीदी में शक्ति लौटकर आ गई, ‘मनु मैं सब कुछ सह लूंगी। भगवान महान हैं, दयालु हैं।’ मेरी तरफ़ मुड़कर बोलीं, ‘मनु ! पापा से पूछो अजीत को लेकर प्लेन कब आ रहा है ?’ वह उठकर दराज़ में से कुछ खोजने लगीं।

तभी फ़ोन की घंटी बजी मैंने फ़ोन उठा लिया। उधर फ़ोन पर माँ थीं, ‘मनु अजीत को यहां अपने घर ले आते हैं। वही ठीक होगा। वहां सरयू जी क्या करेंगी ?’
मैं दीदी से पूछती हूं। हिम्मत करके मैंने दीदी से पूछा। दीदी ने कहा, ‘मनु ! अजीत का घर यहीं है, वह यहीं आयेंगे।’
मैंने जाकर माँ को बता दिया।

सरयू दीदी


सरयू दीदी कल भी मेरी टीचर थीं और आज भी हैं। मैंने एम.ए. प्रीवियस जॉयन किया था और सरयू दीदी ने उसी साल एम.ए. में टॉप किया था। उसी वर्ष यूनिवर्सिटी में उनकी नियुक्ति हो गई थी। हरे बॉर्डर की कांजीवरम की पीली साडी और बालों में बेले का गजरा लगाए सांवला रंग, काजल लगी बड़ी-बड़ी आंखें, तीखा नाक-नक्श, माथे पर बड़ी-सी बिंदी, आगे के दांत थोड़े बाहर को निकले हुए जब वह क्लास में घुसीं तो एक लड़के ने मुंह पर हाथ रखकर अजीब-सी सीटी बजा दी। सारा क्लास मौन था। सरयू दीदी ने सीटी बजाने वाले की तरफ़ देखा, मुस्कराईं और कहा, ‘कितनी अच्छी सीटी बजाते हो।’ और उन्होंने ठीक उसी लड़के की तरह अपने मुंह के सामने दो उंगलियां रखकर सीटी बजा दी और उससे पूछा, ‘ठीक है न’ लड़के की आंखें नीची थी। हम सब मुस्करा रहे थे। सरयू दीदी बोलीं, ‘कोई बात नहीं, हम सब फ्रैंड्स हैं।’

सरयू दीदी पूरे क्लास की हीरोइन बन गईं और हम सबके मन में बस गईं। हां उसके बाद उनके क्लास में कभी भी कोई सीटी नहीं बजी। हमारी सरयू दीदी, मिस सरयू भट्ट यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होकर आई थीं। इस डिपार्टमेंट में गिने-चुने तीन लेक्चरर्स थे। उनमें से मिस्टर वर्मा हैड थे और मिस सरयू भट्ट नई लेक्चरर। मिस सरयू भट्ट शीध्र ही सबकी सरयू दीदी बन गई। अपने क्लास में मैं अकेली ही लड़की थी, तो सरयू दीदी जैसे मेरी एक निकट सम्बन्धी-सी हो गईं। मेरे और उनके और क़रीब आने में एक बात और हो गई। हमारी यूनिवर्सिटी में एक संकरी ‘प्रेम गली’ थी। उसमें दोनों तरफ़ मधुमालती की बेलें और बेले के फूलों की झाड़ियां थीं। मौसम में जब उसमें फूल खिलते तो ‘प्रेम गली’ महक जाती। उसमें से गुज़रने वाले लड़के-लड़कियां, वयस्क, अध्यापक व अध्यापिकाएं अपनी चाल धीमी कर देते और आने-जाने वालों को दो टूक देख लेते।

एक दिन सरयू दीदी उसी ‘प्रेम गली’ में से गुज़र रही थीं। दूसरी तरफ़ से मैं भी आ रही थी। हम दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कराये। तभी एक बिल्ली हम दोनों के बीच में से दौड़ती हुई आई और उसने एक गिलहरी को पड़क लिया। बस इधर एक डंडी मैंने तोड़ी और उधर सरयू दीदी ने और बिल्ली की पीठ पर जमा दी। बिल्ली के मुंह से छूटकर गिलहरी मधुमालती की बेल पर चढ़ गई और बिल्ली दुम दबाकर भाग गई। बिल्ली के भागने के बाद हम ज़ोर से हँसे। हम दोनों ‘प्रेम गली’ का रास्ता रोके भी खड़े थे। आने-जाने वाले रुके थे और क़तार लग गई थी। सरयू दीदी मुड़ीं और फिर हम दोनों साथ-साथ चलकर बातें करने लगे। बातों ही बातों में मैंने उन्हें अपने घर वालों की बातें बताईं और उन्होंने अपने घर वालों की।

सरयू दीदी कॉलेज के हॉस्टल में रहती थीं। टीचर से मित्र और मित्र से सम्बन्धी बनने में समय नहीं लगा। उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि उनसे कोई भी प्रश्न पूछो तो उसका उत्तर सदा वह ऐसे देतीं कि पूछने वाले को पूरा संतोष हो जाता। साथ-ही-साथ वह पूछने वाले से उसके प्रश्न का कारण और पूरी तहक़ीकात करके ही समाधान निकालती थीं। वह सुनती तो ज़्यादा थीं, पर कभी-कभी अपनी भी सुनाती थीं और ऐसे सुनाती थीं कि मानो मैं ही उनकी जिगरी दोस्त हूं।
एक दिन क्लॉस के बाद वह मुझे कॉफ़ी हाउस में ले गईं। बड़ी उदास-सी लग रही थीं। उस दिन मैंने अपने रोज़ का कार्यक्रम लाइब्रेरी तीन घंटे बैठना स्थगित कर दिया और उनके साथ कैफ़े में बैठ गई।

‘दीदी आप उदास क्यों हैं ?’
‘यों ही, मूड की बात है ?’
‘नहीं, कोई-न-कोई बात है। आपको बताना होगा।’
‘मानवी ! कभी-कभी पुरानी यादें मन विकल कर देती हैं। सोचती हूं कि मन ख़राब करने वाली बातें क्यों याद आती हैं ?’
मेरी समझ में नहीं आया मैं क्या कहूं। हमेशा तो वही मुझे बल देती रहती हैं और आज मैं उनको कैसे बल दूं। मैं कॉफ़ी टेबल पर उनके सामने बैठी थी। मैंने चुपचाप उनके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। उस स्पर्श से उनकी आंखें भर आईं और मेज़ पर उनके दो आंसू टप से गिर पड़े। मेरा भी जाने क्यों गला रुंध गया।

‘सरयू दीदी ! आपको सब कुछ बताना होगा।’
सरयू दीदी ने शायद अपनी कमज़ोरी दबाने के लिए ऊपर से ओंठ दाँत से दबा लिया। पर कहीं कोई छिपी हृदय की चोट हरी-सी हो गई और वह धीरे-धीरे बोलने लगीं।
‘मानवी ! मैं सचमुच बता दूँ ?’
‘दीदी आपकी सब बातें मुझी पर रहेंगी।’

दीदी को ढाढ़स आया। उनकी नज़र मेज़ पर रखे फूलदान में लगे लाल गुलाब पर टिक गई। गुलाब की मीठी महक में जैसे वह डूब गईं। कुछ देर बाद वह बोलने लगीं।
‘मानवी ! छोटी थी तभी मेरी माँ अपने बच्चों को और पिता जी को बिलखता छोड़कर गुजर गईं। मैं सबसे बड़ी थी। मुझसे छोटी गरिमा, उससे छोटा वैभव और सबसे छोटी थी विभा। हम चारों में तीन-तीन साल का अंतर था। पिता जी डॉ. भट्ट एक कॉलेज में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे।’ सरयू दीदी की आंखें ऊपर दीवार पर लगे दिन में भी जलते हुए टिमटिमाते बल्ब पर टिक गई।

‘मैं पढ़ने में अच्छी थी। क्लास में फ़र्स्ट आती थी। पर अचानक घर का भार मेरे ऊपर आ गया। पिता जी बहुत चिन्तित थे। क्या करें, क्या न करें। मैंने भी मन में निश्चय कर लिया था कि मैं पिता जी की सहायता भी करूंगी और पढ़ूंगी भी। अब तो मैंने माँ की जगह ले ली और हां मैं पहले भगवान में विश्वास नहीं करती थी। पर माँ के मरने के बाद जाने क्यों सुबह-ही-सुबह अपने आप हाथ जुड़ जाते और एक-दो मंत्र, जो पिता जी ने बचपन में सिखाये थे वह याद आ जाते। मैं सुबह-सुबह केवल उन दो मंत्रों को अर्थ सहित कह डालती।’ सरयू दीदी चुप हो गईं।
‘वह कौन से मंत्र थे दीदी ?’ मैंने जैसे उन्हें जगा दिया।

वह भावविभोर होकर मुस्कराई और कहने लगीं,
‘ओं विश्वनि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यदभद्रं तन्न आसुव।।
हे प्रकाशमय सर्वनियन्ता परमेश्वर, हमारे सब संकटों को दूर करें और जो मंगल है वह हमको प्राप्त कराएं।’ कहकर फिर चुप हो गईं।

‘और वह दूसरा मंत्र कौन-सा है ?’ मैं मंत्रमुग्धा उनको सुनती रही।
‘वही गायत्री मंत्र भूर्भवः स्वाहः, बुद्धि ठीक रहे।’
और सरयू दीदी ने गायत्री मंत्र भी अर्थ सहित कह डाला।

‘ओइम् भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योः नः प्रचोदयात्।
हे प्रभु ! उस प्रकाशमय सबको चलाने वाले जगदीश्वर की, उस प्रसिद्ध अति उत्तम ज्योति को हम धारण करें। वह हमारी बुद्धि को बढ़ाए।
मानवी ईश्वर की कृपा रही हम पर।’

‘पर क्या हुआ ?’
सरयू दीदी के चेहरे पर एक अजीब, प्यार-सी मुस्कराहट की लहर दौड़ गई। उनको कुछ याद आ गया।
‘हां पिता जी के एक बहुत प्रिय स्टूडेंट थे। बड़े हँसमुख, दिल के धनी। वह भी पिता जी के साथ कॉलेज में पढ़ाने लगे। वह शाम को रोज़ पिता जी से मिलने आते।’

‘उनका नाम क्या था दीदी ?’
‘केशव प्रसाद, पर मैंने उनका नाम रख दिया आग़ा ख़ां!’ दीदी गंभीर हो गईं।
‘क्यों दीदी ? नया नाम क्यों दे दिया ?’
‘वह दिल के बड़े धनी थे। बहुत अकेले, बहुत ज्ञानी और बहुत भावुक,’ और दीदी की आंखें भर आईं।
‘आग़ा ख़ां भाईसाहब शाम को सात बजे हमारे घर ज़रूर आते और अक्सर ननकू हलवाई की जलेबी ले आते। हम छहों लोग बड़े शौक़ से साथ-साथ खाते थे।

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